बाल-कविता (घनाक्षरी)
*खाई खजानी*
बाल-कविता (घनाक्षरी)
लइका :
भात नइ खावँव दाई,
मोला चाही कोनों खाई,
काहीं-कुछु खाय बर,
मुँह पनछात हे।
रात-दिन दार-भात,
जी बिट्टागे खात-खात,
देख रामू-श्यामू मन,
टुहूँ ला देखात हे।
नड्डा-चना-मुँगफली,
देख हाँका परे गली,
सोन पापड़ी ला मोर,
मन सोरियात हे।
खाँव-खाँव हवै चोला,
दे दे दाई पैसा मोला,
आनी-बानी ओदे दाई,
खजानी बेचात हे।।
दाई :
लिखस-पढ़स नहीं,
अढ़ोथौं करस नहीं,
खाली खाई-खजानी मा,
मन ओरमात हस।
कभू खाहूँ ओला कहे,
कभू खाहूँ एला कहे,
घेरी-बेरी पैसा बर,
बाबू रे रिसात हस।
चल पढ़ बेटा मोर,
टीवी गेम ला तैं छोड़,
कहि-कहि थकगेंव,
मोला बेंझियात हस,
खा ले खाई कतको गा,
बात मान अतको गा,
पढ़ लिख तको बेटा,
काबर तंगात हस।।
बलराम चंद्राकर भिलाई
बहुत सुन्दर भैया जी
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