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Showing posts from September, 2021

साँप खुसर गे

 साँप खुसर गे  साँप खुसर गे कुरिया मा।  सबो भगा गेन दुरिहा मा।  सोंचन कोन बचाही जी।  बाहिर कोन भगाही जी।  बबा गोटानी धर आगे।  थात थात काहन लागे।   ददा धरे टँगिया भारी।  साँप भगाना हे जारी।   साँप बिला भीतर चल दिस।  छलिया जइसन वो छल दिस।  जाने कब वो आही जी। कइसे रात पहाही जी।  रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा  बलौदाबाजार

गिल्ली उड़ी अगास

 गिल्ली उड़ी अगास डंडे ने गिल्ली को मारा।  गिल्ली उड़ी अगास।  डंडा रहा घिरे घेरे में।  गिल्ली चंदा पास।   सैर सपाटा कर के आया।   वो डंडे के पास।  उड़ने का आनन्द बताया। डंडा हुआ उदास।  डंडे ने गिल्ली से बोला।  अब तू मुझको मार।  आसमान कैसा है देखूँ।  जाऊँ मैं इस बार।  नहीं उड़ा सकती डंडे को। गिल्ली है लाचार।  दुनिया की तो रीत यही है।  छोटे खाते मार।  रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा  बलौदाबाजार

बाल गीत योग सिखाओ

 बाल गीत  योग सिखाओ  हाथी दादा जल्दी आओ।  हमको योग जरा सिखलाओ।  कैसे स्वांस हमें लेना है।  ध्यान कहाँ हमको देना है।  बज्रासन में बैठें कैसे।  सब होता है जैसे तैसे।  कुछ करके हमको दिखलाओ।  हमको योग जरा सिखलाओ।   ताड़ासन कैसे उठना है।  कुंभासन कितना झुकना है।   शिरसासन अब होगा कैसे।  देह भयंकर भैसे जैसे।  हल आसन का राज बताओ।  हाथी दादा जल्दी आओ।   रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा  बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

सोनू भाई

 सोनू भाई  सोनू भाई सुन लो बात।  आया है देखो बरसात।   बे मतलब बाहर मत जाव।  कीचड़ में ना जान झँसाव।  कहाँ मानते सोनू बात।  देखा बंद हुई बरसात।   दौड़ लगा बाहर को आय।  कीचड़ में फिर उधम मचाय।  हुआ साँथियों से फिर मेल।  सुरू हो गया उनका खेल।  उछल कूद में बिगड़ा काम।  फिसला सोनू गिरा धड़ाम।  रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा  बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

कालू

 कालू  कालू कुकुर गजब के चालू।  चुपके चुपके आवय।  रँधनी मा राखे रोटी ला।  धर के तुरत भगावय।  कभू खाय मछरी के डल्ला।  कुकरी तक पा जावय।  कभू दूध दुहना मा राखे।  चाँटत मजा उड़ावय।  एक बार कालू हर फँसगे।  बाँगा मुड़ी फँसाये।  भात खात ले खाये कालू।  निकल मुड़ी नइ पाये।  काँय-काँय नरियावत राहय।   कछू समझ नइ पावय। येती ओती जेमा तेमा। फटरस ले टकरावय।  लालच के फाँदा मा फँसगे।  काय करय अब कालू।    ले डूबत हे लालच संगी। कतको राहव चालू। रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा  बलौदाबाजार

जंगल की सैर

 जंगल की सैर  आओ बच्चों सैर करा दूँ।  जंगल क्या होता दिखला दूँ।  ऊंचे-ऊंचे पेंड़ खड़े हैं।  तूफानों से सदा लड़े हैं  पर्वत खाई और नदी है।  पेंड़ लता से देख लदी है।  कलकल नदियाँ गीत सुनाते।  झरने झरझर ताल मिलाते।  मोर पपीहा तोता मैना।  कोयल बुलबुल प्यारे हैना।  हाथी भालू शेर यहाँ है।  हिरण लोमड़ी ढेर यहाँ है।  कूद रहा पेड़ों पर बंदर।  और बताऊँ क्या है अंदर।  सांप अनेकों मिल जाएंगे।  देख रूप दिल हिल जाएंगे।  बिल के अंदर कोई रहता।  कोई पानी जाड़ा सहता।  शेर गुफा में डेरा डाले।  चिड़िया अपनी नीड़ बनाले।  उल्लू रहता खोल बनाकर।  खूब डराता है चिल्लाकर। जंगल है खतरों का डेरा।  रात कभी ना करना फेरा।  पगडंडी में सम्हल के चलना।  साँझ ढले तो तुरत निकलना। रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा  बलौदाबाजार

दादा जी घोड़ा बन जाओ

 दादा जी घोड़ा बन जाओ  दादा जी घोड़ा बन जाओ।  मुझे बिठाकर सैर कराओ। नदी ताल की ओर चलेंगे।  जो देखे ओ हाथ मलेंगे।  सरपट घोड़ा जब भागेगा।  लम्बी दूरी झट नापेगा।  जंगल पर्वत पार करेंगे।  काँटों से हम नहीं डरेंगे।  पंख लगा अब उड़ जाना है।   बादल से फिर टकराना है।  चंदा मामा घर जायेंगे। घूम घाम वापस आयेंगे दादा जी अब छड़ी उठाओ।  घोड़ा बनकर सैर कराओ। रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा  बलौदाबाजार