पेंड़ मन के बइठका

 पेंड़ मन के बइठका 


रोज कटावत देख एक दिन, 

पेंड़ सबो जुरियागे। 

कइसे बाचन ये मनखे ले, 

सबझन सोंचन लागे। 


एक पेंड़ गुस्सा के कहिथे, 

डारा मार भगाबो। 

कहिस दूसरा नार बांधके,

फाँसी जस लटकाबो।  


तीसर बोलिस जहर घोर के, 

फर ओमन ल खवाबो। 

चउथा कहिथे जड़ी बूटी ले,  

अवसध गुण ल हटाबो। 


बुढ़वा रुखुवा सबके सुनके, 

गूढ़ रहस्य बताइस। 

परमारथ बर जनम लिए हन, 

सबझन ला समझाइस। 


जइसन जेहर काम करत हे, 

तइसन फर वो पाही। 

आज नही ता काली मनखे, 

करनी ला पछताही।


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

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