बाल कविता-हाथी के सूँड़
हाथी के सूँड़
लम्बा सूँड़ लमाये हाथी,
धमरस-धमरस आथे।
हाथ बरोबर सूँड़ म धरके,
डारा पाना खाथे।
इही सूँड़ हर नाक तको ये,
स्वांसा अपन चलाथे।
पानी भर के अंग-अंग मा,
मार फुहार नहाथे।
पूछ कभू झन येखर ताकत,
काम बड़े कर जाथे।
बड़े-बड़े रुखराई मन ला,
सूँड़ लपेट उठाथे।
खाना खाथे हाथी मनभर,
इही सूँड़ मा धरके।
मनभर प्यास बुझावत रहिथे,
खींच सूँड़ भर भरके।
दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार
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